क्यों आवश्यक है श्राद्ध एवं तर्पण





लखीमपुर-खीरी। भारतीय संस्कृति मानव जीवन की एक बहुमूल्य दृष्टि एवं पध्दति का नाम है। मानवीय चेतना को इसके पूर्ण विकास तक ले जाना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है। आत्मा के अनश्वर एवं शाश्वत आस्तत्व की इसकी सुस्पष्ट धारणा के अनुसार जीवन की परिभाषा यहां अति व्यापक है। शरीर के अंत के उपरांत भी जीवात्मा के विकास एवं परस्पर भावपूर्ण आदान.प्रदान की व्यवस्था इसमें निहित है। मृत्यु के उपरांत श्राध्द.तर्पण की व्यवस्था इसी का एक प्रखर प्रमाण है। वर्ष में पितृपक्ष के सोलह दिन विशेष तौर से इसी के लिये नियत किये गये हैंए जिसका उदाहरण अन्य धर्म.सम्प्रदायों में मिलना दुर्लभ है।

आर्यों की महानता
इसी संस्कृति के प्रखर.पक्ष को स्मरण कर मुगल बादशाह शाहजहां अपने अंतिम यातना भरे दिनों में अविभूत हुए थेए जब उनके क्रूर पुत्र सम्राट औरंगजेब ने उन्हें जेल में बंद कर रखा था। आकिल खां के ग्रंथ ष्वाक्यात आलमगिरी में शाहजहां ने अपने पुत्र औरंगजेब के नाम पत्र में मर्मभेदी उद्गार लिखे थे हे पुत्र! तू भी विचित्र मुसलमान है जो अपने जीवित पिता को जल के लिये तरसा रहा है। शत&शत बार प्रशंसा योग्य हैं वे हिन्दूए जो अपने मृत माता.पिता को भी जल देते हैं।

इसी तरह श्राध्द.तर्पण के संदर्भ में एक अंग्रेज विद्वान ने आर्यों की महानता  नामक अपनी पुस्तक में लिखा है हिन्दुओं में श्राध्द की प्रथा बड़ी प्राचीन है और आधुनिक समय तक अतिपवित्र और शुभ मानी जाती है। मेरे विचार से ईसाई मत में पूर्वजों की स्मृति मानना एक त्रुटि है। अपने पूर्वजों के प्रति अगाध श्रध्दा और स्मरण भाव से युक्त यह प्रथा प्रशंसनीय ही नहीं है वरन् इसको प्रोत्साहित करना भी सर्वथा उचित है। मेर मत है कि इस प्रकार की प्रथ प्रत्येक धर्मानुयायियों में होनी आवश्यक है। पुराने समय में मनुष्य का यह दृढ़ विश्वास था कि यदि वे अपने मृत पूर्वजों और संबंधियों की आत्माओं को उनकी मंगलकामना की प्रार्थना करके सन्तुष्ट करेंगे अथवा उनकी तृप्ति के निमित्त दान देने में संकोच करेंगे तो वे असंतुष्ट आत्माएं उनकी शांति उपलब्धियों में बाधक बनेंगीए सर्वथा सारहीन नहीं था। पितृ अमावश्या दिवंगत पितरों के प्रति श्रध्दा.सुमन एवं कृतज्ञता ज्ञापन से भरा पर्व है। श्राध्द का अर्थ श्रध्दापूर्ण व्यवहार हैए तर्पण का अर्थ तृप्त करना है। इस तरह श्राध्द.तर्पण का अभिप्राय दिवंगत अथवा जीवित पितरों को तृप्त करने की श्रध्दापूर्वक प्रक्रिया है। पितृ अमावस्या का समूचा कर्मकांड इसी प्रयोजन से किया जाता है। साथ ही इसमें यह भाव.प्रेरणा भी निहित रहती है कि इस पितरोंए महापुरुषों एवं महान पूर्वजों के आदर्शोंए निर्देशों एवं श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण कर वैसे ही महान बनने का सुप्रयास करें।
कल्याणकारी महिमा
शास्त्र मतानुसार मृत्यु के उपरांत जीवात्मा चंद्रलोक की ओर जाती है और वहां से और ऊंचा उठकर पितृलोक में पहुंचती है। इन आत्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुंचने की शक्ति प्रदान करने के निमित मरणोपरांत पिंडदान और श्राध्द की व्यवस्था की गयी है।

ग्रंथों में श्राध्दकर्म की कल्याणकारी महिमा भरी पड़ी है। महर्षि सुमन्तु के मतानुसारए विश्व में श्राध्द उपाकर्म से बढ़कर कोई कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अतरू बुध्दिमान मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राध्द अवश्य करना चाहिये। गरुढ़ पुरान में लिखा है. पितृ पूजन से सन्तुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिये आयुए पुत्रए यशए स्वर्गए कीर्तिए पुष्टिए शक्तिए वैभवए पशुए धन.धान्य देते हैं।ष् मार्कण्डेय पुराण के अनुसारए श्राध्द से तृप्त होकर पितृगण श्राध्दकर्ता को दीर्घायुए सन्ततिए धनए विद्याए सुख राज्य स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।

महाभारत के अनुसार पितरों की भक्ति करने से पुष्टिए आयुए वीर्य एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। अतएव पितरों की संतुष्टि एवं अपने कल्याण के उद्देश्य से सभी विचारशील मनुष्यों को श्राध्द.तर्पण में अवश्य ही भावपूर्ण भागीदारी निभानी चाहिये। इसमें जहां पितरों की भावनात्मक तृप्ति एवं आत्मिक शांति का पुण्य प्रयोजन निहित है वहीं श्राध्दकर्ता की भी सर्वांगीण स्वार्थ सिध्दि एवं कल्याण का यह एक अच्छा अवसर है।

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